Memoirs of Master Samdarshi

समदर्शी जी के संस्मरण

संस्मरण १ :

वर्ष 1983 में, जब मैंने संन्यास (भारत में) लिया, ओशो स्वयं रजनीशपुरम (अमेरिका) में थे। उन दिनों सभी ओशो शिष्यों को उनकी तस्वीर वाली माला और गेरुआ वस्त्र धारण करना अनिवार्य होता था। जब मैं अपनी दुकान पर जाता था, तो राह पर मिलने वाले लोग मुझे घूरते थे और तीखी आलोचना करते थे। कहते थे “ओ भगवान रजनीश!” तथा अपमानजनक और अश्लील शब्दों से मेरा तिरस्कार करते थे । और मैं उन पर कोई ध्यान दिए बिना चलता जाता था। बहुत से लोग मेरे सामने थूकते थे या यह कहकर मेरा मजाक उड़ाते थे  कि “रजनीश जिसने पूरी दुनिया को धर्म के नाम पर भ्रष्ट कर दिया है, जिसके आश्रम में नग्न महिलाएं नाचती  हैं!”। कई बार उनके थूक के छींटे मेरे शरीर पर आ गिरते थे। कभी-कभी मुझे गुस्सा भी आता। लेकिन मैं दृढ़ था कि मैं केवल खुद को देखना चाहता हूं, दूसरों को नहीं। और मैं  शांत भाव से साक्षी में स्थिर होकर  देखता था  कि मेरे अंदर क्या हो रहा है जब कोई मुझ पर थूकता है। मैं ऐसे चला जाता था जैसे कुछ भी न हुआ हो। ऐसा लगभग हर दिन होता होगा। आज के साधकों को  ऐसी कोई परीक्षा नहीं देनी पड़ती, क्योंकि उन्हें सार्वजनिक जीवन में कोई भी माला या गेरुआ वस्त्र  पहनने की आवश्यकता नहीं है। उन दिनों ओशो के साथ रहना एक बड़ी चुनौती थी। हमारे साथ ऐसा व्यवहार किया जाता था  जैसे कि हम अछूत हैं  क्योंकि किसी भी शहर में केवल मुट्ठी भर संन्यासी थे। इस सारी आलोचना के बावजूद, मैं आभार अनुभव करता था कि आलोचना और उपहास ने मुझे खुद को देखने और अपने ध्यान को मजबूत करने का अवसर  दिया है।

मैं सबसे कहना चाहता हूँ  कि जो मुझसे प्यार करते हैं वे मुझसे प्यार करते रहेंगे। जो मुझे गाली देते हैं वे मुझे गाली ही देंगे। आप सभी को परेशान होने की आवश्यकता नहीं कि मेरे साथ कैसा व्यवहार किया जाता है। क्या ओशो के साथ दुर्व्यवहार नहीं हुआ? कौन गाली देता है? अहंकार। ओशो को किसने जेल दिया?  अहंकार। ओशो को किसने ज़हर दिया? अहंकार। जीसस को किसने सूली दी? अहंकार। बुद्ध को किसने ज़हर दिया ? अहंकार। अगर मुझे गाली दी जाए या जहर दिया जाए, तो दुखी न हों। यह सभी बुद्धों की नियति है।

सखा भाव से जीना ही प्रेम है।  सखा भाव तुम्हें सर्व से एक करता है।  

धम्मं शरणम् गच्छामि।  

– समदर्शी


संस्मरण २

मैं जब साधना करता  था, तब मैं प्रायःओशो आश्रम, पुणे जाया करता था। मैं भगवान की मौजूदगी को देखता, मौन को महसूस करता, उन्हें चलते, उठते, बैठते देखता। उन दिनों उनकी एक प्रसिद्ध किताब ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ मुझे पढ़ने को मिली जिसमे ओशो द्वारा बताई गई एक ध्यान की विधी मेरे भीतर गहरे प्रवेश कर गई। 

विधी यह कि गुरु शिष्य से ये संवाद करता है।

गुरु: प्रिय शिष्य, यदि स्वयं को पाना हो तो दूसरों पर ध्यान देना छोड़ दो। 

शिष्य: जी गुरुदेव, जी गुरुदेव

यह विधी मेरे अंतरतम में गहरे प्रवेश कर गई। मैं आश्रम से बहार भोजन इत्यादि के लिए दिन में ३ से ४ बार निकलता था। इस विधी को मैंने सूत्र बना लिया। मैं जब भी बाहर से लौटकर आश्रम वापस आता, मैं वहीं आश्रम के प्रमुख द्वार पर कुछ क्षण मौन खड़ा होकर खुद से ये संवाद करता। मैं खुद ओशो बन जाता और खुद समदर्शी और आंतरिक संवाद स्वयं से करता। 

ओशो: हे प्रिय शिष्य समदर्शी

समदर्शी: जी गुरुदेव, जी गुरुदेव

ओशो: यदि स्वयं को पाना हो तो दूसरों पर ध्यान मत देना। 

समदर्शी: जी आज्ञा गुरुदेव

मैं इस विधी को हर बार आश्रम के फाटक पर दोहराता और फिर अंदर प्रवेश करता।

जब मैं भीतर प्रवेश कर जाता तो  मुझे अपनी स्वास के बिना कुछ भी दिखाई नहीं देता। न आश्रम, न स्त्री पुरुष। 

उन दिनों भगवन ने बुद्ध की साधना काल के दिनों की एक कथा कही। एक बार भगवान बुद्ध किसी एक मित्र के साथ भ्रमण कर रहे थे जब उनकी नाक पर आकर एक मक्खी बैठी। उन्होंने बेहोशी में हाथ उठा कर उसे भगा दिया और चलते रहे। चार कदम के बाद वो ठिठके और वापस चार कदम होशपूर्वक लौटे। फिर पूर्ण होश से अपना हाथ उठाकर मक्खी को फिर से उड़ाया जबकी वहाँ मक्खी नहीं थी।  

मित्र ने बुद्ध से पुछा कि ये आपने क्या किया? बुद्ध ने कहा कि पहले मैंने बेहोशी से मक्खी उड़ाई थी। मेरा मेरी चेतना के प्रति ये पाप हो गया।  (उन्होंने इस बेहोशी को चेतना के प्रति पाप कहा।) अब मैं होशपूर्वक पुनः वो कृत्य करके अपने पाप को मिटा रहा हूँ।  

ये बात मेरे गहनतम में तीर की तरह उतर गई। मेरे अंदर एक संकल्प उठा कि मैं प्रत्येक क्षण, कोई भी कृत्य, सम्पूर्ण होश से करूँगा। बेहोशी का एक क्षण भी मेरे जीवन में नहीं होगा। इस महान सूत्र ने मेरे ध्यान को असीम गहराई दी। 

यही मेरा तुमसे भी सन्देश है:  हर एक कृत्य को जान कर, होश से करना। ये स्थिती साधक की है – जो होश को साध रहा हो। बुद्धों को यह साधने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि वो स्वयं होश है। बुद्ध होश साधता नहीं, वो स्वयं होश है। वो प्रेम करता नहीं, वो स्वयं प्रेम है। साधक को जाग्रति साधनी पड़ती है, बुद्ध सदा जाग्रत है। 

तुम मन में हो और इसलिए प्रेम करते हो। परन्तु बुद्धा का होना ही प्रेम है। 

एस धम्मो सनंतनो!

-समदर्शी